विमुद्रीकरण: भारतीय मुद्रा छापनेवालों की रहस्यमयी दुनिया

Note: The below GreatGameIndia story has led to a major national controversy prompting the press conference by Dilip Pandey, former Kerala Chief Minister Oommen Chandy and All India Panchayat Parishad exposing the role of #DeLaRue in printing of Indian currency notes. GreatGameIndia itself has received a notice from the advisory firm Brunswick on behalf of De La Rue regarding the story. De La Rue’s notice and the official GreatGameIndia response can be read here.

Read in English: The Secret World Of Indian Currency Printers

सरकार ने अभी हाल ही में 500 और 1000 रूपये के नोटों को बन्द करके 2000 के नये नोटों को पेश करने का निर्णय लिया है| बताया जा रहा है कि ऐसा करने से नकली नोटों (FICN) की सहायता से होने वाले आतंकवाद की फंडिंग को रोकने और विध्वंसक गतिविधियां जैसे जासूसी, हथियारों की तस्करी, ड्रग्स और प्रतिबंधित वस्तुओं की कालाबाजारी को रोकने में मदद मिलेगी| साथ ही ऐसे दावे भी हैं कि इससे हमारी अर्थव्यवस्था के सामानांतर कालेधन की काली छाया को नष्ट करने में कामयाबी मिलेगी| उद्देश्य तो सार्थक हैं, लेकिन क्या हमारी नई मुद्रा की छपाई में वही कम्पनियाँ हैं जो कालीसूची में डाली गयीं थीं और जिन कंपनियों की मिलीभगत से पाकिस्तान में नकली मुद्रा छपने के कारखाने चलते थे?

R.B.I. कम्पित और संसद अचंभित

वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान नकली मुद्रा रैकेट का पता लगाने के लिए सीबीआई ने भारत – नेपाल सीमा पर विभिन्न बैंकों के करीब 70 शाखाओ पर छापेमारी की| उन शाखाओं के अधिकारियों ने सीबीआई से कहा था कि जो नोट सीबीआई ने छापें में बरामद किये हैं वो बैंकों को रिजर्व बैंक से मिले हैं| उसके बाद सीबीआईने भारतीय रिज़र्व बैंक के तहखानो में छापेमारी में जाली 500 और 1000 मूल्यवर्ग का भारी गुप्त कैश पाया था, लगभग वैसे ही समान जाली मुद्रा पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा भारत में तस्करी से पहुँचाया जाता था| अब सवाल है कि यह नकली मुद्रा भारतीय रिज़र्व बैंक के तहखानो में कैसे पहुंची?

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2010 में सरकारी उपक्रमों संबंधी (COPU) संसदीय समिति चौक गयी कि सरकार द्वारा पूरे देश की आर्थिक संप्रभुता को दांव पर रख कर कैसे अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी को 1 लाख करोड़ की छपाई का ठेका दिया गया|

अमेरिकी नोट कंपनी (यूसए), थॉमस डे ला रू (ब्रिटेन) और giesecke and devrient consortium (जर्मनी) ये वो तीन कम्पनियां है, जिसे भारतीय मुद्रा की छपाई करने के लिए ठेका दिया गया था| इस घोटाले के बाद रिज़र्व बैंक ने अपने वरिष्ठ अधिकारी को तथ्य तलाशने के लिए डे ला रू के प्रिटिंग प्लांट हैम्पशायर (ब्रिटेन) भेजा| रिज़र्व बैंक अपनी सुरक्षा कागज की आवश्कताओं का 95% का आयात उसी कंपनी से करता था जो कि कम्पनी के लाभ का एक तिहाई था, फिर भी भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा डे ला रू को नये अनुबन्ध से दूर रखा गया| डे ला रू के इस झूठ के कारण सरकार द्वारा इसे काली सूची में डाल दिया जिसके कारण 2000 मीट्रिक टन कागज, प्रिटिंग प्रेस और गोदामों सब ऐसे ही पड़े रह गए| इस असफलता के बाद डे ला रू के सीईओ जेम्स हंसी, जो इंग्लैंड की रानी का धर्म-पुत्र है ने बहुत ही रहस्यमय तरीके से कम्पनी छोङ दी| अपने सबसे मूल्यवान ग्राहक “भारतीय रिजर्व बैंक” को खोने के बाद डे ला रू के शेयर लगभग दिवालिया हो गए| इसके फ्रेंच प्रतिद्वन्दी ओबेरथर ने इसका अधिग्रहण करने के लिए नीलामी की कोशिश की जिससे कंपनी किसी तरह बची|

वित् मंत्रालय के अज्ञात अधिकारियों ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को भेजी शिकायतों में अन्य कम्पनियों का भी उल्लेख किया| इसमें फ्रेंच फर्म अर्जो विग्गिंस, क्रेन एबी (यूसए) और लाविसेंथल (जर्मनी) शामिल है! हालांकि अभी हाल ही में जनवरी 2015 में गृहमंत्रालय ने जर्मन कंपनी लाविसेंथल को प्रतिबंधित कर दिया, जो कि आरबीआई को बैंक नोट पेपर बेचने के साथ-साथ पाकिस्तान को भी कच्चा नोट बेच रही थी|

ऐसे में सवाल उठता है कि कौन हैं ये रूपया छापने वाले? और वो भारत सरकार के मुद्रण तक पहुचे कैसे? कालीसूची में और दिवालियापन के कगार पर होने के बावजूद भी वो लोग कैसे भारतीय बाज़ार में दुबारा प्रवेश करने की तैयारी कर रहें हैं? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आम भारतीयों को इसके बारे में कुछ पता क्यों नही है| यहाँ पर हम पैसे बनाने वालो का एक छोटा सा किस्सा रख रहे हैं|

पैसा बनाने वालों की रहस्यमयी दुनिया

सारे हाई सिक्योरिटी पेपर्स की छपाई और टेक्नोलॉजी मार्किट में चंद पश्चिमी-यूरोपीय कंपनियों का प्रभुत्व है| अपनी किताब “मनी मेकर्स – सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ करेंसी प्रिंटर्स” में लेख़क क्लाउस बेंडर ने नोट उद्योग और उसके काम करने के ढंग और उस इंडस्ट्री की गोपनीयता से पर्दा हटाकर सबके सामने रखा है| इस कहानी को प्रकट करने के लिए एक प्रयास में 1983 में एक अमेरिकी लेख़क टेरी ब्लूम द्वारा अपनी पुस्तक “द ब्रदरहुड ऑफ़ मनी द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ बैंक नोट प्रिंटर्स” में सारी काली करतूतों का लेखा जोखा लिखा| लेकिन इस व्यापार के अंदर की कहानी जनता तक पहुँचने से रोकने के लिए उसी उद्योग के दो प्रमुख प्रतिनिधियों द्वारा सीधे प्रिटिंग प्रेस से उस किताब के सारे संस्करण खरीद लिए गए|

मुद्रा कारोबार में प्रमुख क्षेत्र हैं कागज, प्रिंटिंग प्रेस, नोट, स्याही और इंटीग्रेटर्स| इन कामों का जिम्मा सेवा देने वाली कंपनी के कार्यों में आता हैं| ऐसा माना जाता है कि यह ब्यापार यूरोप में बहुत ही गुप्त तरीके से लगभग दर्ज़न भर कम्पनियो द्वारा किया जाता है| साथ ही इन कम्पनियो की शुरुवात 15वीं सदी के बाद से मानी जाती है| डे ला रू कंपनी का इतिहास और इसके संचालन और कंपनी के संयंत्र का किस्सा इसके 1000 साल पहले से है|

डे ला रू ब्रिटिश हुकूमत का आधिकारिक क्राउन एजेंट था, जो कि अभी भी बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के लिए नोट प्रिंटिंग का काम करता है| क्राउन एजेंट साम्राज्य के रोज मर्रा के मामलों को चलाते थे| अपनी किताब “मैनेजिंग ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर – द क्राउन एजेंट्स” के लेख़क डेविड सेनडरलैंड बताते हैं कैसे क्राउन एजेंट्स तकनीकी, इंजीनियरिंग और वित्तीय सेवाओं के साथ कॉलोनियो के लिए मुहरे और नोट मुद्रित करते थे| निजी बैंको से लेकर गुलाम देशों के मौद्रिक अधिकारियो, सरकारी अधिकारियो और राज्य के प्रमुख को हाथियार उपलब्ध कराना, सेनाधिकारी और गुलाम देशों की सेनाओ को पैसा देकर गलत काम करवाने (वेतनाधिकारी) के लिए काम करते थे| 19वी सदी में ब्रिटिश साम्राज्य की लगभग 300 कालोनियो और नाम मात्र के “स्वतंत्रत देशों” को ब्रिटिश ताज के लिए साम्राज्य में सम्मिलित किये गए थे| जिसका प्रशासन क्राउन एजेंट के हाथो में था|

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बाद में 1831 में कालोनियो के लिए राज्य सचिव की देख रेख में अलग-अलग क्षमता और ईमानदारी के एजेंटो को सुब्याव्स्थित करने के लिए क्राउन एजेंट्स के ऑफिस स्थापित किये गए| इस प्रबंधन का गठन नवोदित औद्योगिक क्रांति को ठीक से चलाने के लिए हुई जिसने पारंपरिक भारतीय बाज़ार और अर्थवस्था को नष्ट कर दिया|

माँरिसस पहली कॉलोनी थी जिसको नोट जारी करने की सरकारी अनुमति दी गयी| वहां 1849 में नोटो को वितरित करने का काम शुरू किया गया| 1884 तक किसी कॉलोनी को इसकी अनुमति नही दी| कॉलोनियों को नोट एजेंटो से प्राप्त करना होता था जिसके लिए प्रिटिंग फर्म डे ला रू आर्डर पास करती थी|

आधिकारिक इतिहास के अनुसार भारत में बैंक नोट मुद्रण सरकार द्वारा 1928 में भारत सुरक्षा प्रेस की स्थापना के साथ शुरू किया गया| नासिक में प्रेस के चालू होने तक भारतीय करेंसी नोट यूनाइटेड किंगडम के थॉमस डे ला रु जियोरी द्वारा मुद्रित किया जाता था|

स्वतंत्रता के बाद भी 50 सालों से भारत अपने रुपये की छपाई डे ला रू से खरीदी हुई मशीन से कर रहा है| जो की एक स्विस परिवार गिओरी द्वारा संचालित होती है और नोट मुद्रण ब्यापार पर उसका लगभग 90% का नियंत्रण है| लेकिन 20वीं के अन्त तक कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिसने की सब कुछ बदल के रख दिया|

इंडियन एयरलाइन्स फ्लाइट IC-814 का अपहरण

24 दिसम्बर 1999 को भारतीय एयरलाइन्स फ्लाइट IC 814 का कुछ गनमैन द्वारा अपहरण कर लिया गया| अपहरणकर्ताओं ने विमान को विभिन्न लोकेशन से उड़ाने का आदेश दिया| अमृतसर, लाहौर और दुबई से होते हुए अपहरणकर्ताओं ने अन्त में उसे कान्धार (अफगानिस्तान) में उतारने का आदेश दिया जो कि उस समय तालिबान के नियंत्रण में था| उनके लिए जो इस घटना से वाकिफ नही है, वो अजय देवगन की फिल्म “ज़मीन” देखकर याद कर सकते हैं|

जो इस फिल्म में नही दिखाया गया और जिसे लोग जानते भी नहीं वह था उस फ्लाइट में मौजूद एक रहस्यमय आदमी| उसका नाम था रोबेर्टो जियोरी और वही डे ला रु का मालिक था, जिसकी वर्ल्ड करेंसी प्रिंटिंग व्यापार पे लगभग 90% आधिकार है| 50 वर्षीय गिओरी, जिसके पास इटली और स्विट्ज़रलैंड की दोहरी नागरिकता है, स्विट्ज़रलैंड के सबसे आमीर आदमियों में एक है|

स्विट्ज़रलैंड ने अपने मुद्रा राजा के अपरहण से निपटने, उसकी सुरछित रिहाई और नई दिल्ली पर दवाब डालने के लिए हवाई अड्डे पर अपना एक विशिष्ट दूत भेजा|

स्विस प्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक हाईजैक के दो दिन बाद रविवार २६ दिसम्बर को स्विस विदेश मंत्री श्री जोसफ डिस की अपने भारतीय समकक्ष जसवंत सिंह के साथ काफी लम्बी टेलीफोनिक बात चीत हुई| स्विस सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए राजधानी बर्न में अलग से एक सेल बनाई और एक विशिष्ट दूत हैंस स्टादर को कान्धार भेजा जो नियमित रूफ से ‘बर्न’ को वापस रिपोर्ट करता था| स्विस अख़बारों की रिपोर्ट की मानें तो विशिष्ट विमान से स्विट्ज़रलैंड तक सुरक्षित वापसी के दौरान और बाद में भी रोबेर्टो जियोरी स्विस सरकार के विशिष्ट सुरक्षा घेरे में रहा|

लेकिन यहाँ इस कहानी में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ी लापता है| यह माना जाता है कि रोबेर्टो जियोरी की सुरक्षित रिहाई के लिए फिरौती भारत सरकार द्वारा चुकाई गयी थी| इस मुद्दे पर न सिर्फ राजनीतिक वर्गों से बल्कि खुफिया तंत्र ने भी आवाज़ उठाई थी| यह बात कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए ही बहुत शर्मनाक है और निकट भविष्य में संसद को हिला देने की अहमियत रखती है|

जो भी उद्येश्य (अपरहण का) रहा हो, किन्तु भारतीय जेलो में बन्द आतंकवादियों के सुरक्षित रिहाई के लिए प्लेन अपहरण की रिपोर्ट लिखी गयी| कारवाई 7 दिनों तक चली और बाद में भारत से तीन आतंकवादियों की रिहाई की सहमति पर बात बनी – मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद उमर सईद शेख, और मौलाना मसूद अज़हर| ये आतंकी बाद में मुंबई आतंकी हमले सहित अन्य आतंकी कार्यवाही शरीक रहे|

यद्पि आतंकियों की रिहाई प्लेन को हाईजैक करने का एक मकसद हो सकता है| लेकिन वहां और भी महत्वपूर्ण और बड़ी घटनाएँ हुई जिसे समझना ज़रूरी है| रोबेर्टो जियोरी कोई साधारण आदमी नही था, ना ही कोई सामान्य वीवीआईपी, वो उस कंपनी का मालिक था जो सदियों से 150 से ज्यादा देशों के लिए नोट छापती रही है| और जहाँ भी कंपनी का छपाई कारोबार रहा उन देशों में इस कंपनी का एक अँधेरा इतिहास भी रहा है| हम यहाँ कुछ उदहारण से अपने पाठको को परिस्थिति की गम्भीरता को समझने और दूसरो को अध्ययन करने के प्रोत्साहन के लिए रख रहे हैं|

  1. बात तब की है जब लीबिया के राष्टपति कर्नल मुअम्मर गद्दाफी की मुद्रा की कमी से सेना हार गयी| मुद्रा की कमी से जूझते हुए गद्दाफी अपने सैनिको को भुगतान करने में भी असमर्थ थे| उस समय लीबिया के नोटो की प्रिटिंग का काम डे ला रु के पास था, लेकिन कंपनी ने तब तक उन्हें डिलीवरी नही दी जब तक की बहुत देर नही हो गयी|
  2. बर्लिन और सोवियत संघ के विघटन के साथ, कई नए देश रातो रात अचानक अस्तित्व में आ गए| उसमे एक देश था चेचेन्या (पुराना सोवियत संघ का हिस्सा) जिसने पासपोर्ट और नोटो की छपाई के लिए डे ला रु से गुप्त समझौते पर हस्ताक्षर किया| रसलन और नाजेर बेग को समझौता करने के लिए भेजा गया| पासपोर्ट और बैंक नोट प्रिंटिंग के अलावा 2000 स्ट्रिंगर मिसाइल (ज़मीन से हवा में मारने वाली) की डील ब्रिटेन से हुई जो की रूस का जानी दुश्मन है| के.जी.बी को आगाह किया गया और जल्द ही दोनों भाइयों को मारने के लिए आर्मेनियन हिटमेन लॉस एंगल्स से भेजे गए| भाई और डील दोनों समाप्त हो गयी पर डे ला रु बच गया|

सब कुछ ठीक था जब तक कि 2010 में संसद समिति घोटाले से चौंक उठी और डे ला रु अन्य कंपनी के साथ भारत में परिचालन से कालीसूची में डालने से लगभग दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया| और यही से शुरू होता है हमारी विमुद्रीकरण की कहानी|

क्या डे ला रु नई रुपये के नोटो की छपाई में शामिल है?

इकनोमिक टाइम्स की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार नोट्स मोटे तौर पर अत्यन्त गोपनीयता के साथ मैसूर में छपी है, जबकि कागज जिस पर मुद्रण किया गया है वह इटली, जर्मनी और लन्दन से आऐ थे|

अधिकारियो के अनुसार प्रिंटिंग अगस्त-सितम्बर में शुरू हुआ और 2000 रुपये के लगभग 480 मिलियन और 500 रुपये की लगभग एक समान संख्या में नोट मुद्रित किये गए| भारतीय रिज़र्व बैंक मैसूर में भारतीय रिज़र्व बैंक नोट मुद्रण प्राइवेट लिमिटेड, और डे ला रु जियोरी के साथ अनुबन्ध है जो कि वर्त्तमान में के केबीएजियोरी, स्विट्ज़रलैंड नाम से है|

दि हिन्दू की खबर के मुताबिक भारत बैंक नोट पेपर यूरोपीय कंपनियों लौइसेन्थल (जर्मनी), डी ला रु (यू के), क्रेन (स्वीडन), अरजो विग्गिन्स (फ्रांस) और नीदरलैंड से आयात करता है|

भारत सुरक्षा एजेंसी के अनुसार भारत ने 2014 में दो यूरोपीयन कंपनियों को कालीसूची में डाल दिया क्योकि उन्होंने समझौते में शामिल सिक्योरिटी पेपर की प्रिंटिंग की शर्तों को पाकिस्तान के साथ साझा कर दिया था|

लेकिन बाद में प्रतिबन्ध हटा लिया गया और कंपनियों को कालीसूची से हटा दिया गया| क्यों? प्रतिबन्ध हटाने का कारण जो दिया गया वह कुछ यूँ था:

एक अधिकारी ने बताया कि “ये कम्पनियां 150 सालों से काम कर रही है वे एक देश की जानकारी दूसरे देश से साझा कर के अपने व्यापार में बाधा नही डालेंगी”| इन कम्पनियों में से कुछ छोटे देशों के लिए नोट प्रिंट करती है| जाँच के बाद यह पाया गया की दोनों फर्मो ने सुरक्षा शर्तों से समझौता नही किया था और इसलिए प्रतिबंघ हटा लिया गया|

हालांकि अपने ही जाँच में ब्रिटेन के ही सीरियस फ्रॉड ऑफिस ने पर्दाफाश किया था कि डे ला रु के कर्मचारियों द्वारा जान बूझ कर अपने 150 ग्राहकों में से कुछ के लिए कागज विशिष्ट परीक्षण प्रमाण पत्र का गोलमाल हुआ था| हाल ही में पनामा पेपर में ये भी पता चला की डे ला रु ने 15% अतिरिक्त घूस नई दिल्ली के ब्यापारियों को रिजर्व बैंक के कॉन्ट्रैक्ट को सुरक्षित करने के लिए दिया| रिपोर्ट यह भी थी कि डे ला रु ने रिजर्व बैंक सेटलमेंट के लिए चालीस मिलियन पाउंड का भुगतान किया, जो कि नोटो के पेपर के उत्पादन के लिए हुआ था|

ये सब होने के बावजूद, भी मंजूरी दी गयी है कि डे ला रु के साथ मिलकर मध्य प्रदेश में एक सिक्योरिटी पेपर मिल, अनुसन्धान और विकास केंद्र की स्थापना की जाएगी|

डे ला रु के नये सीईओ मार्टिन सदरलैंड ने इंडिया इन्वेस्टमेंट जर्नल के एक साक्षात्कार में कहा कि नकली नोटों के विषय पर ‘यूनाइटेड किंगडम और भारत के बीच नवम्बर 2015 में हुए रक्षा एवं अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग भागीदारी समझौते’, के तहत डे ला रु दोनों देशों का जालसाजी के विषय पर समर्थन करने के लिए प्रतिबद्ध है|

हालाँकि डे ला रु पर से प्रतिबन्ध हटाने और कालीसूची से नाम हटाने के सम्बन्ध में कोई आधिकारिक घोषणा (समाचार रिपोर्ट के अलावा) नहीं की गयी है| डे ला रु जो कि रिजर्व बैंक का ठेका खोने के बाद लगभग दीवालिया हो गया था, 6 महीने में इसके शेयर में 33.33 % भारी वृद्धि की सूचना है|

प्रश्न जिसका अभी भी उत्तर दिया जाना बहुत ही जरूरी है वह ये कि क्या नये भारतीय मुद्रा की छपाई में कालीसूची में डाले गए क्राउन एजेंट कंपनियों की भागीदारी है, जिसने भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर पाकिस्तान के लिए नकली नोटों के सोर्स और सप्लाई की?

नोट:- इन सवालों के जवाब प्राप्त करने के लिए और मामले की सारी सच्चाई जानने के लिए ग्रेट गेम इन्डिया ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत राष्ट्र सेवा में ‘आर.टी.आई.’ दायर की है|

आउटलुक हिंदी हमारी रिपोर्ट को ध्यान में लेता है। यह है टाइम्स ऑफ इंडिया और ट्रिब्यून के संपादक द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट। – नोट की छपाई का तिलस्मी धंधा

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रिपोर्ट – शैली कसली, अनुवाद – हेमन्त कुमार पाण्डेय
ग्रेट गेम इन्डिया – जिओपॉलिटिक्स और अन्तररास्ट्रीय मामलों पर भारत की एकमात्र त्रैमासिक पत्रिका

ग्रेट गेम इन्डिया के जुलाई-सितम्बर 2016 अंक में अंतरराष्ट्रीय बाजार के काम करने के तरीके और भारतीय रूपयों पर पड़ने वाले इसके वास्तविक प्रभाव को विस्तार से समझाया गया है| #फाइनेंसियल_वारफेयर

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